.कंदील(आकाशदीप) जलाने की परंपरा इस बार भी शहर में नही दिख पाई।थोड़ा बहुत गांव में दिखा जहां हसपुरा प्रखंड के मौआरी गांव में एक बच्ची ने अपने हाथ से कंदील बनाया था।आज के बदलते परिवेश में हमारे पर्व-त्योहार भी अपना मूल स्वरूप खोते जा रहे हैं।पहले जहां दीपावली के दिन घर के छतों पर एक से बढकर एक रंग-बिरंगे व आकर्षक कंदील(आकाशदीप) जलाने की परंपरा थी वह आज लगभग खत्म सी हो गई है।जैसा कि पहले लोग दीपावली से छ:-सात दिन पूर्व से ही इसे पूरी तन्मयतापूर्वक बनाने में जुट जाते थे और दीपावली के दिन अपने-अपने घरों के छतों के सबसे उपरी हिस्सों पर उसमें दिये जलाकर बांस और रस्सी के सहारे टांगते थे।आकाश में रंग-बिरंगे रौशनी में टिमटिमाता हुआ यह कंदील पूरी रात अपनी सुंदरता का नजारा पेश करता था।इस बारे में बीते कई वर्षों से इस पुरानी परंपरा को अक्षुण्ण बनाये हुए मौआरी निवासी डॉ0 ज्योति कुमार बताते हैं कि पहले मेरे गांव में भी दर्जनों घरों के छतों पर कंदील लगे नजर आते थे जिसे छठ के दूसरे दिन उसे छतों से हटा लिया जाता था जबकि कुछ लोग कार्तिक पूर्णिमा के बाद हटाते थे।वे आगे कहते हैं कि कभी लोग इसकी सुंदरता पर मुग्ध हुआ करते थे।पर तेज रफ्तार जिंदगी तथा आधुनिकता व पाश्चात्य संस्कृति के चकाचौंध में भारतीय तहजीब पर आधारित यह प्रथा लगभग लुप्त हो गयी है, जो बेहद अफसोसनाक है।ऐसा न हो कि हमारी पीढियां इसे सिर्फ किस्से-कहानियों में ही जान और सुन सकें।
